महंगाई की दौड़ में प्याज का पीछा करते हुए आलू प्रथम स्थान पर पहुंचने के लिए जी-जान से लगा है। दालों में भी बेचैनी है और दौड़ में शामिल हो गई हैं। व्यवस्था व्यापारियों द्वारा दिए गए चुनावी चंदे का शुकराना अदा कर रही हैं। यह क्या कम है कि शुक्राना अदा करने के नाम पर ही सही व्यवस्था में हरकत दिखाई पड़ रही है।
वरन् उसे मृत देह के समान स्पंदनहीन मान लिया जाता। जिस तरह हर पेंशन पाने वाले कर्मचारी को समय-समय पर अपने जीवित होने का प्रमाण देना पड़ता है, उसी तरह राष्ट्रीय रजिस्टर में हर नागरिक को अपने बने रहने का प्रमाण देना होगा। क्या ‘आधार’ को व्यवस्था ही अब आधारहीन मान रही है?
शांताराम की सर्वकालिक महान फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ में कैदियों को सुधारने की कथा है। कैदी अपने परिश्रम से उगाई सब्जियां बेचने शहर की मंडी में आते हैं। उनकी सब्जियां ताजी और सस्ती हैं। लोभी व्यापारी सन्न रह जाते हैं। अगले दिन व्यापारी वर्ग किराए के गुंडों से मेहनतकश कैदियों को पिटवा देता है।
अहिंसा की शपथ से बंधे कैदी अपनी हड्डियां तुड़वाकर वापस आ जाते हैं। कैदियों ने अपने सुपरिटेंडेंट की प्रेरणा से बंजर जमीन को उपजाऊ बना दिया था। उनका खेत उजाड़ने के लिए एक पागल सांड खेत में छोड़ देते हैं। नायक उसे काबू करने में घायल हो जाता है। पागल सांड भी हिंसा का प्रतीक है। एक दौर में सब्जी वाला धनिया मुफ्त में देता था।
आज धनिए की कीमत चुकानी पड़ रही है। हालात कुछ ऐसे हो रहे हैं कि मुफ्त में सलाह भी नहीं मिलेगी। आज फिल्मकार आई एस जौहर जीवित होते तो वे अपनी फिल्म में ‘सलाह की दुकान’ का दृश्य रखते। दो सलाह की कीमत अदा करने पर तीसरी सलाह मुफ्त में दी जाती और हास्य सुपर सितारे जॉनी वॉकर उसकी दुकान पर जाकर कहते कि पहले मुफ्त वाली तीसरी सलाह दे दें। मनोज कुमार की फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ में भूख हड़ताल पर बैठे मिल मजदूरों पर फिल्माए गीत में ‘महंगाई मार गई’ गीत का प्रभावोत्पादक प्रस्तुतीकरण किया गया था।
कुछ फिल्मों में इस तरह के दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं कि किसी जलसे में शरीक सितारों के ड्राइवर अपने अनुभव सुनाते हैं। सितारों के परिवार को अपने कमाऊ लाडले की जो बातें नहीं मालूम, वे जानकारियां इन ड्राइवरों के पास होती हैं। महानगर की बहुमंजिलों के अाहाते में सब्जी और फल बेचने आने वाला व्यक्ति धनाढ्य महिलाओं को समान बेचता है।
वह महिलाएं भी उससे दाम कम करने की मांग करती हैं। महंगाई से सभी वर्ग प्रभावित हैं। बहरहाल, सब्जी बेचने वाला कंपाउंड से बाहर निकलता है। कुछ दूरी पर खड़ी अपनी मर्सिडीज कार में बैठता है। कार में ही वह कपड़े बदलता है। उसने अपने धनाढ्य ग्राहकों से खूब धन कमाया है।
इरफान खान अभिनीत फिल्म ‘इंग्लिश मीडियम’ में एक अमीर दंपति गरीबों की बस्ती में जा बसते हैं। उन्हें साधनहीन वर्ग के कोटे से अपने बच्चे का दाखिला कराना है। एक दृश्य में जांच करने वाला अधिकारी आता है। वह उनके कमरे में 300 रुपए के पिज्जा का खाली डिब्बा देखता है। इरफान का एक साथी कहता है कि इनका अभी-अभी दिवाला निकला है। यह नए-नए गरीब हैं।
गरीबी हटाने के प्रयास का ढोंग करते हुए नेता चुनाव जीतते हैं। कुछ राजनीतिक विद्वानों का मत है कि गरीबी मिटाने का श्रेष्ठ साधन गरीबों को ही मिटा देना है। यह प्रयास भी सदियों से जारी है, परंतु गरीब बड़ा मजबूत और ढीठ है। वह अपनी जमीन छोड़ता ही नहीं।